Description
“सद्गुण और दुर्गुण दोनों से मिलकर ही मनुष्य बना है। हर व्यक्ति में भिन्न-भिन्न मात्रा में दोनों पाए जाते हैं। हमें मधुमक्खी की तरह बनना चाहिए जो फूलों की ओर आकृष्ट होती है, न कि मक्खी की तरह जो सड़े घावों और गन्दी वस्तुओं पर बैठती है। दूसरों की बुराई करने अथवा व्यर्थ की बातें करने में रस लेना आत्म-संस्कृति के लिए हानिकारक है।
ऋषियों की गहन अनुभूति से प्रकट वैदिक धर्म ने ईश्वर को प्राप्त करने के अनन्त मार्ग खोल दिये हैं। हमारा धर्म बड़ी-बड़ी बातें करने और निरर्थक शब्द जाल या कोरे सिद्धान्तों या मान्यताओं को स्वीकार करने वाला धर्म नहीं अपितु यह अनुभूति है, यह मनुष्य को दिव्य गुण सम्पन्न करनेवाला या मनुष्य में से ईश्वरत्व विकसित करने वाला धर्म है। हमारा “सम्पूर्ण धर्म साधना की वस्तु है। हम आज जो हैं वह पूर्व अभ्यास का परिणाम हैं और उसी प्रकार वर्तमान के अभ्यास द्वारा हम स्वयं बदल सकते हैं। एक प्रकार के कर्म के कारण हमें वर्तमान की स्थिति में ला दिया है; और अब हम दूसरे कर्म के द्वारा इस स्थिति से बाहर निकल सकते हैं। इन्द्रिय परायणता के कारण तुम इस अधोगति में आ गये हो और हम लगभग जड़ देह हो गये हैं तथा हजारों कर्म शृंखलाओं में आबद्ध हो गये हैं। अपनी इस जड़ बद्धता को तोड़ देना होगा। आराधना धर्म का वास्तविक व्यावहारिक रूप है; यह आध्यात्मिक जीवन में प्रगति की ओर ले जाएगा। भक्ति साधना के बिना परमप्रेमरूपा शुद्धाभक्ति तक हम कभी नहीं पहुँच सकते जहाँ भगवान् के साथ सादृश्य मुक्ति (communion with God) प्राप्त कर हृदय ग्रन्थि का भेदन हो जाएगा, सभी संशय नष्ट हो जाएँगे और सभी कर्म क्षीण हो जाएँगे।
प्रस्तुत पुस्तक में स्वामी विरजानन्द जी ने सांगोपांग गहराई और विस्तार से विषय का विवेचन किया है। साधना के सैद्धान्तिक और व्यवहारिक दोनों ही पक्ष सन्तुलित और समन्वित रूप से प्रस्तुत किए गए हैं।”
Contributors : Swami Virajananda, Dr. Sureshachandra Sharma