Description
विवेक द्युतिते उद्भासित सुभाषचन्द्र’ नामक मूल बंगला ग्रन्थ का यह हिन्दी अनुवाद विशिष्ट अनुवादकों ने किया है।
‘विवेकानन्द की प्रभा से उद्भासित सुभाषचन्द्र’ नामक हिन्दी में अनूदित इस ग्रन्थ में स्वामी विवेकानन्द और सुभाषचन्द्र बसु की स्वाधीन भारत की उन्नति से सम्बन्धित परिकल्पनाओं के अनुसार बंगाल के स्वनामधन्य लेखकों और लेखिकाओं ने लेख लिखे हैं। उन सभी लेखों को संकलित करके यह ग्रन्थ दो खण्डों में प्रस्तुत है।
स्वामीजी के अनुसार – मानव को उसके पशुभाव से मनुष्यभाव में उन्नत करके पुनः उसे देवभाव में आरूढ़ करना होगा। इस देवभाव में प्रतिष्ठित होकर मनुष्य असीम शक्तिसम्पन्न होकर ज्ञान का आधार बन जाता है।
सुभाषचन्द्र एक युगनेता थे। स्वामी विवेकानन्द के भावादर्शों के अनुसार उन्होंने अपने जीवन को सुगठित किया। उन्होंने अपनी मातृभूमि की सेवा करने हेतु स्वाधीनता संग्राम में स्वयं को नियोजित किया था। १५ वर्ष की आयु में वे विवेकानन्द साहित्य से इतने प्रभावित हुए कि उनकी समस्त चिन्तनधारा में स्वामी विवेकानन्द का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। ‘स्वामी विवेकानन्द सुभाषचन्द्र के प्राण थे।’
भारत की दुर्दशा को देखकर चिन्तित होते हुए भी सुभाषचन्द्र बोस भारत के पुनरुत्थान के सम्बन्ध में निश्चिन्त भाव से आशावादी थे। सुभाषचन्द्र बसु लिखते हैं : भारत यद्यपि अपना सब कुछ खो बैठा है, भारतवासी प्राय: सारविहीन हो गये हैं, परन्तु इस प्रकार सोचने से काम नहीं चलेगा – हताश होने से काम नहीं चलेगा और जैसा कि कवि ने कहा है – ‘फिर से तुम मनुष्य हो जाओ, फिर से मनुष्य बनना होगा … यही नैराश्य-नि:स्तब्धता – इसी दु:ख-दारिद्र्य, अनशन, सर्वत्र हाहाकार और इसी विलास-विभव-असफलता के रव को भेद कर फिर से भारत का वही राष्ट्रीय गीत गाना होगा। वह क्या है – उतिष्ठत, जाग्रत।
भारत की मुक्ति और पुनरुज्जीवन के तात्पर्य के सम्बन्ध में नेताजी सुभाषचन्द्र स्वामी विवेकानन्द की तरह ही सजग और सचेतन थे। वे सोचते थे – विश्व की संस्कृति और सभ्यता में भारत का योगदान न रहने से विश्व और भी अधिक दरिद्र हो जाएगा। भविष्य के भारत के गठन के लिए भी सुभाषचन्द्र की विस्तृत कल्पना और चिन्तन में विवेकानन्द का प्रभाव दिखाई देता है। देश की राजनैतिक मुक्ति और राष्ट्रीय पुनर्गठन के लिए स्वामी विवेकानन्द की तरह सुभाषचन्द्र बसु देश के युवा समाज के ऊपर सबसे अधिक निर्भर थे, जो सेवादर्श में उद्बुद्ध होकर संकीर्ण व्यक्तिगत, गोष्ठीगत या दलीय स्वार्थ का अतिक्रमण करने में समर्थ होंगे और संगठित प्रयास से समाज की सामग्रिक उन्नति के लिए कूद पड़ेंगे।
प्रथम खण्ड में विचारप्रवण और विश्लेषणात्मक, शिक्षा, साहित्य, शिल्पकला, संस्कृति तथा धर्म के अन्तर्गत आनेवाले लेख और द्वितीय खण्ड में इतिहास, समाज और अर्थनीति से सम्बन्धित विविध लेख संगृहित हैं।
‘हम आशा करते हैं कि ग्रन्थ के प्रकाशन से सुधी पाठक लाभान्वित होंगे।’
Contributors : Swami Chaitanyananda, Swami Urukramananda